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स॒म्राड॑सि प्र॒तीची॒ दिगा॑दि॒त्यास्ते॑ दे॒वाऽअधि॑पतयो॒ वरु॑णो हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता स॑प्तद॒शस्त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्याश्र॑यतु मरुत्व॒तीय॑मु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु वैरू॒पꣳ साम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु ॥१२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। अ॒सि॒। प्र॒तीची॑। दिक्। आ॒दि॒त्याः। ते॒। दे॒वाः। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। वरु॑णः। हे॒ती॒नाम्। प्र॒ति॒ध॒र्त्तेति॑ प्रतिऽध॒र्त्ता। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। त्वा॒। स्तोमः॑। पृ॒थि॒व्याम्। श्र॒य॒तु॒। म॒रु॒त्व॒तीय॑म्। उ॒क्थम्। अव्य॑थायै। स्त॒भ्ना॒तु॒। वै॒रू॒पम्। साम॑। प्रति॑ष्ठित्यै। प्रति॑स्थित्या॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थित्यै। अ॒न्तरि॑क्षे। ऋष॑यः। त्वा॒। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। दे॒वेषु॑। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒न्तु॒। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता। च॒। अ॒यम्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। ते। त्वा॒। सर्वे॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽविदा॒नाः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। यज॑मानम्। च॒। सा॒द॒य॒न्तु॒ ॥१२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे स्त्री-पुरुष कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! जो तू (प्रतीची) पश्चिम (दिक्) दिशा के समान (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशित (असि) है, उस (ते) तेरा पति (आदित्याः) बिजुली से युक्त प्राणवायु (देवाः) दिव्य सुखदाता (अधिपतयः) स्वामियों के तुल्य (अयम्) यह (सप्तदशः) सत्रह संख्या का पूरक (च) और (स्तोमः) स्तुति के योग्य (वरुणः) जलसमुदाय के समान (हेतीनाम्) बिजुलियों का (प्रतिधर्त्ता) धारण करनेवाला (अधिपतिः) स्वामी (त्वा) तुझ को (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (श्रयतु) सेवन करे (अव्यथायै) स्वरूप से अचल तेरे लिये (मरुत्वतीयम्) बहुत मनुष्यों के व्याख्यान से युक्त (उक्थम्) कथनयोग्य वेदवचन तथा (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा के लिये (वैरूपम्) विविध रूपों के व्याख्यान से युक्त (साम) सामवेद को (स्तभ्नातु) ग्रहण करे और जो (दिवः) प्रकाश के (मात्रया) भाग से (वरिम्णा) बहुत्व के साथ (अन्तरिक्षे) आकाश में (प्रथमजाः) विस्तारयुक्त कारण से उत्पन्न हुए (ऋषयः) गतियुक्त वायु (देवेषु) दान के हेतु अवयवों में वर्त्तमान हैं, वैसे (त्वा) तुझ को विद्वान् लोग (प्रथन्तु) प्रसिद्ध उपदेश करें। जैसे (विधर्त्ता) जो विविध रत्नों का धारने हारा है, (च) यह भी (अधिपतिः) अध्यक्ष स्वामी प्रजाओं को सुख में रखता है, वैसे (ते) तेरे मध्य में (सर्वे) सब (संविदानाः) अच्छे प्रकार ज्ञान को प्राप्त हुए (त्वा) तुझ को (च) और (यजमानम्) विद्वानों के सेवक पुरुष को (नाकस्य) दुःखरहित देश के (पृष्ठे) एक भाग में (स्वर्गे) सुखप्रापक (लोके) दर्शनीय स्थान में (सादयन्तु) स्थापित करें ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग पश्चिम दिशा और वहाँ के पदार्थों को दूसरों को जनाते हैं, वैसे स्त्री-पुरुष अपने सन्तानों आदि को विद्यादि गुणों से सुशोभित करें ॥१२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशौ स्यातामित्याह ॥

अन्वय:

(सम्राट्) या सम्यक् प्रदीप्यते (असि) (प्रतीची) पश्चिमा (दिक्) दिशन्ति यया सा दिक् तद्वत् (आदित्याः) विद्युद्युक्ताः प्राणा वायवः (ते) तव (देवाः) दिव्यसुखप्रदाः (अधिपतयः) स्वामिनः (वरुणः) जलसमुदाय इव दुष्टानां बन्धकः (हेतीनाम्) विद्युताम् (प्रतिधर्त्ता) (सप्तदशः) एतत्संख्यापूरकः (त्वा) त्वाम् (स्तोमः) स्तोतुमर्हः (पृथिव्याम्) (श्रयतु) (मरुत्वतीयम्) बहवो मरुतो व्याख्यातारो मनुष्या विद्यन्ते यस्मिँस्तत्र भवम् (उक्थम्) वाच्यम् (अव्यथायै) अविद्यमानात्मसंचलनायै (स्तभ्नातु) गृह्णातु (वैरूपम्) विविधानि रूपाणि प्रकृतानि यस्मिंस्तत् (साम) (प्रतिष्ठित्यै) (अन्तरिक्षे) (ऋषयः) गतिमन्तः (त्वा) (प्रथमजाः) प्रथमाद् विस्तीर्णात् कारणाज्जाता वायवः (देवेषु) दानसाधकेषु (दिवः) प्रकाशस्य (मात्रया) भागेन (वरिम्णा) (प्रथन्तु) (विधर्त्ता) विविधानां रत्नानां धारकः (च) (अयम्) (अधिपतिः) (च) (ते) (त्वा) (सर्वे) (संविदानाः) सम्यग्लब्धज्ञानाः (नाकस्य) (पृष्ठे) (स्वर्गे) (लोके) (यजमानम्) (च) (सादयन्तु) ॥१२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! या प्रतीची दिगिव सम्राडसि तस्यास्ते पतिरादित्या देवा अधिपतय इवायं सप्तदशश्च स्तोमो वरुणो हेतीनां प्रतिधर्त्ताधिपतिस्त्वा पृथिव्यां श्रयत्वव्यथायै मरुत्वतीयमुक्थं प्रतिष्ठित्यै वैरूपं साम च स्तभ्नातु ये च दिवो मात्रया वरिम्णा सहान्तरिक्षे प्रथमजा ऋषयो देवेषु वर्त्तन्ते तद्वत् त्वा विद्वांसः प्रथन्तु। यथा विधर्त्ता चाधिपतिश्च राजा प्रजाः सुखे स्थापयतु तथा ते सर्वे संविदानाः सन्तस्त्वा यजमानं च नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके सादयन्तु ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसः पश्चिमां दिशं तत्रस्थान् पदार्थाँश्चान्येभ्यो विज्ञापयन्ति। तथा स्त्रीपुरुषाः स्वापत्यादीन् विद्ययाऽलंकुर्वन्तु ॥१२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक पश्चिम दिशा व तेथील पदार्थांचे ज्ञान इतरांना देतात तसे स्त्री-पुरुषांनी संतानांना विद्या इत्यादी गुणांनी सुशोभित करावे.